Friday, May 15, 2020

मजदूर .. मजबूर ।।

वो सत्ताएं दिलाता है पर उसकी सत्ता कभी न थी ,
वो आशियाने बनाता है ,पर अपना आशियाना कभी न था  ,
वो कहानी के शब्द बनता है , पर उसकी खुद की कहानी कभी न थी । ।

मजदूर पलायन कर रहे हैं और उन्हें तकलीफ में देख हर किसी का दर्द स्वभाविक भी है । कहीं सड़क पर बच्चे का जन्म तो , सूटकेस पर  बच्चे  को बैठा लंबी  यात्रा पर निकली माँ ।  किसी की साइकिल ही उसकी BMW बन गई तो कोई अपने बेलों के साथ या हाथ रिक्शे में ही अपने परिवार को समेट अपने गांव चल पड़ा । दुर्भाग्य की कहीं रेल पटरी पर सो रहे कुछ लोगों के ऊपर से ट्रेन  निकल गई तो कुछ लोग सड़क दुर्घटना के शिकार हो गये ।

आपदा में जब सब बन्द होता चला गया,  तो वह भी अपने घर निकल पड़ा । शुरू में तो केवल अपने कदमो के भरोसे । सत्ताओं ने होश सम्भाल कर ,इन्हें भी सम्भालना शुरू किया तब भी इसने भरोसा नहीं किया । लगा कि  अपने गांव ही चलूँ।  हक है उसका ,जहाँ चाहे वहाँ रहे । तुम्हारे शहरों - अट्टालिकाओं की सेवा का ठेका उसने नहीं लिया है । जब दिल्ली जैसे शहरों में एक रात में लाखों लोग एक जगह इक्कठे हो गये , तब ही समझ आ जाना था कि इन बड़े शहरों में हर कोई अनजाना है ।

 जो समाज ,इन को रोजगार देने की बात करता है सच्चाई तो यह है कि इस समाज के घरों, दुकानों , कारखानों , खेतों , तक को ये प्रवासी अपने " होने " से ही चलाते हैं । अब वे अपने घरों को चल पड़े , एक भय जो घटना से उठा और एक भय जो इन मे रोपा गया ।

सैकड़ों किमी यात्रा का साहस करने वाले इस वर्ग में इतना साहस तो है कि खुद को सम्भाल लेगा  । पर अब जब यह  कभी वापस आएगा तो क्या इस समाज मे भरोसा ढूंढ पायेगा ?

जानता हूँ समाज के एक वर्ग ने  जाते या अब भी रह रहे इस वर्ग को सम्भाला है , उनके भोजन- रहने - व यात्रा की भी व्यवस्था की है । शुरू की भगदड़ के बाद तत्काल इनके निवास , बसों से गंतव्य की यात्रा , बाद में रेलों की व्यवस्था हुई और अधिकांश की यात्रा सुगम हुई है पर अब भी काफी लोग सड़क पर हैं।

वे इतनी सरकारी व्यवस्थाओं के बाद भी सड़क पर हैं ...गांव-शहर-जिला - राज्यों की सीमाएं पार कर रहे हैं । कितनी पुलिस नाके ,चौकी , कितनी राजनैतिक परिधियाँ वे लांघ रहे हैं ....पर  खबर तो तभी उठती है, जब उन्हें खबर बनना हो अन्यथा आपने घर को निकल पड़ा यह " दृढ़ निश्चयी " तो चला जा रहा है , खुद पर रोटियाँ सेकने वालों को रोटी का मौका देकर । काश , सत्ताओं व समाज ने इस वर्ग को  यही रुकने के लिये भरोसा दिलाया होता ।

चाहता हूँ ,की वे जहां है वहीँ रहें । उनका रोजगार - भोजन यही तो है पर जानता हूँ कि वे तो मन के मोला है , यह उनका हक भी है , जहाँ चाहें वहाँ रहें .....पर इन मजदूरों को इनके हकों से दूर रखने वाले जब इनके पैरों की फोटो दिखा कर प्रश्न उठाते हैं तो लगता है कि लाशों पर मंडराने वाले गिद्ध अपना भोजन तलाश रहे हैं ।